वाराणसी। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन (नई दिल्ली) की टीम संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में दुर्लभ पांडुलिपियों के संरक्षण के कार्य में जुटी हुई है। इस क्रम में 65000 से अधिक फोल्डरों का ट्रीटमेंट हो चुका है। वहीं मिशन की टीम नौ हजार से अधिक पांडुलिपियों के मेटा डाटा भी तैयार कर चुकी है।
इसमें पांडुलिपि के प्रथम व अंतिम पृष्ठ के अलावा इसका नाम, लिपि सहित अन्य विवरण दर्ज किया है। आनलाइन होने के बाद देश-दुनिया के किसी भी कोने से घर बैठे दुर्लभ पांडुलिपियों के बारे में जानकारी हासिल किया जा सकता है।
विश्वविद्यालय के सरस्वती भवन में बौद्विक खजाने के रूप 96 हजार से अधिक दुर्लभ पांडुलिपियां संरक्षित है। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार ने इन पांडुलिपियाें के संरक्षण की जिम्मेदारी राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को सौंपी है। इसके लिए मंत्रालय गत वर्ष 21 करोड़ रुपये बजट को स्वीकृति देते हुए प्रथम किश्त पांच करोड़ रुपये जारी की थी।
पांडुलिपियों के संरक्षण का कार्य तीन चरणों में होना है। प्रथम चरण में पांडुलिपियों का सूचीकरण किया जाएगा। दूसरे चरण में कंजर्वेशन तथा अंतिम चरण में डिजिटलाइजेशन का कार्य कराया जाएगा। मिशन की 30 सदस्यीय टीम पांडुलिपियों के संरक्षण में एक साल से जुटी हुई है। तीन साल का प्रोजेक्ट होने के बाद भी संरक्षण में करीब छह से सात साल लगने की संभावना जताई जा रही है।
पांडुलिपियों के संरक्षण का कार्य फरवरी 2024 से ही जारी है। मिशन की टीम ट्रीटमेंट के लिए टिशू पेपर व जापानी जिन सोफू केमिकल के स्टार्च प्रयाेग कर रही है। जापानी स्टार्च की लाइफ करीब 150 से 200 साल से बताई जा रही है।
वहीं स्टार्च से जोड़ से पांडुलिपियों के पन्नों में दीमक व अन्य कीटाणु लगने की संभावना भी काफी होगी। आवश्यकता पड़ने पर जोड़े हुए पन्ने को आसानी से अलग किया जा सकता है। ऐसा करने पर पांडुलिपियां खराब या फटती नहीं हैं।
पांडुलिपियों संरक्षण मिशन के कोआर्डिनेटर विभा पांडेय ने कहा कि पांडुलिपियों के ट्रीटमेंट के लिए सरस्वती विस्तार भवन में एक लैब बनाया गया है। इस लैब में पांडुलिपियों का ट्रीटमेंट जारी है। फटे या छिंद्र को भरने के लिए जिन सोफू केमिकल से बने स्टार्च का प्रयोग किया जाता है। स्टार्च बनाने के लिए सोफू केमिकल को 85 से 90 डिग्री के तापमान पर पकाया जाता है। करीब एक घंटे में 100 एमएल बाटल का स्टार्च तैयार होता है। स्टार्च से पांडुलिपियों को जोडऩे से वाइंड की हुई पांडुलिपियों की साइज दोनों ओर एक समान होती है। वहीं दीपक व किटाणुओं के प्रकोप से कई पांडुलिपियों में छेद भी हो गए हैं। इन पांडुलिपियों के छिद्र को भरने के लिए एक विशेष प्रकार का टिशू पेपर का इस्तेमाल किया जा रहा है।